संस्मरण >> काल के हस्ताक्षर काल के हस्ताक्षरशिवानी
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प्रस्तुत है शिवानी का उत्कृष्ट संस्मरण काल के हस्ताक्षर...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कोयलिया मत कर पुकार
आज से कोई तीस वर्ष पूर्व मेघाच्छन्न श्रावणी सन्ध्या स्मृतिपटल पर उतर
आती है। महाराज ओरछा का दरबार-हाल, मखमली सोफो पर बैठे स्वयं महाराज, उनका
परिवार मित्र। हाथी-दाँत की मेज पर धरा ग्रामोफोन और उस पर बज रहा बेगम
अख्तर का एकदम ताजा रिकार्ड -‘छा रही काली घटा जिया मेरा लहराए
है।’ उस जादुई कंठ से लहराती ‘देश’ की वह
अनूठी बन्दिश
आकाश की काली घटा को जैसे सचमुच ही उस राजसी कक्ष में खींचकर, श्रोताओं को
रसारिक्त कर गई थी। कैसी तड़प थी। उस आवाज में, कैसी टीस !
‘बेवफा
से दिल लगाकर क्या कोई फल पाए है !’’
यह मेरा सौभाग्य है कि उस जादुई कंठ की स्वरलहरी ने मुझे तीस वर्ष पूर्व मन्त्रमुग्ध किया था, उस कंठ का आकर्षण आज भी मेरे लिए वैसा ही बना मेरी लेखनी को गतिशील बना रहा है। जहाँ तक गजल, ठुमरी एवं दादरा का प्रश्न है, स्वर-लय की ऐसी उत्कृष्ट, सम्पन्न गायकी का परिचय अन्य कोई भी गायिका शायद आज तक नहीं दे सकी है। ऐसी सहज स्वाभाविकता, स्वर-लय का ऐसा अपूर्व समन्वय सर्वोपरि उनके कंठ की एक सर्वथा निजी मौलिकता प्रस्तुतीकरण के बीच स्वयं ही आकर छिटक गया एक मीठी टहूक-सा स्वर-भंग जो शायद अन्य किसी भी गायक या गायिका के लिए उसकी गायिकी का दोष बन सकता था, उनकी गायकी का एक अनूठा नगीना बन गया है।
महाराष्ट्र के श्री वामनाराव देशपांडे भारत के प्रसिद्ध संगीतविद हैं। उन्होंने स्वयं विधिवत् ग्वालियर, किराना एवं जयपुर, तीनों घरानों की संगीत–शिक्षा प्राप्त की है। उनके मतानुसार पटियाला घराने का स्थान, जयपुर एवं किराना के मध्य स्थिति है। किराना की विशिष्टता है, सामान्य-सा नक्की स्वर, साथ ही आवाज में एक विचित्र–सी खराश, जिसका अपना एक निजी आकर्षण रहता है। स्वर की यह मिठास किसी रेशमी नाजुक तागे की भाँति खिंचती, और सुननेवालों को भी साथ-साथ खींचती चली जाती है- यह रेशमी डोर, जिस अनूठी कशीदाकारी का जाल बिखेरती चली जाती है, उससे बँधा श्रोता सबकुछ भूल-बिसकर रह जाता है। उधर जयपुर घराने की उन्होंने सर्वश्रेष्ठ माना है- किसी सुदक्ष भास्कर की गढ़ी मूर्ति-सा ही दोषरहित। स्वर-लय का सुठाम सामंजस्य, विकार की छंदमयी गति और मनोरंजकता इस गायकी की सुस्पष्ट छाप है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उनके गुरु थे पटियाला के प्रसिद्ध गायक मुहम्मद अता खाँ और वहीद खाँ।
बेगम अख़्तर का जन्म फैजाबाद में हुआ। उनके बैरिस्टर पति श्री इश्तियाक अहमद अब्बासी साहब के शब्दों में ‘‘इनकी ये खुशकिस्मती थी कि घर रखाइश और सहन-सहन पुराने जमाने की थी, इन्हें घर ही में तमीज़दारी और इखलाक की तामील मिली वालिद सैयद असगर हुसैन साहब एक अच्छे शायर थे, वालदा पढ़ी-लिखी तमीज़दार मिलनसार थीं सारा शहर जिनकी सखावत से फायदा उठाता था।’’
बालिका अख़्तरी को बचपन से ही संगीत से कुछ ऐसा लगाव था कि जहाँ गाना होता, छुप-छुपकर सुनती और नकल करती। घरवालों ने पहले तो उसे रोकना चाहा; पर समुद्र की उत्तुंग तरंगों को भला कौन रोक सकता था। यदि कोई चेष्ठा भी करता तो शायद लहरों का यह सशक्त ज्वारभाटा उसे भी ले डूबता। उधर फैजाबाद के हालात भी कुछ ऐसे ही हो गये थे कि उनकी वालदा उन्हें मजबूरन वहां से लेकर कलकत्ता और बिहार के बीच रहने लगीं। देवदत्त प्रतिभा-सम्पन्न किशोरी अख़्तरी ने फिर संगीत के जिस प्रथम सोपान पर पैर धरा, वहाँ से वह नीचे नहीं उतरी। स्वयं वाग्देवी ही प्रसन्न होकर, उस जिह्वा पर अपना चक्रआँक गयीं। अख़्तरी की रुचि का रुझान ठुमरी दादरा, गजल की ही ओर अधिक था; किन्तु वह जानती थी कि इसे कहने में सरल संगीत के पोहचें की पकड़ के लिए पहले उन्हें ख्याल गायकी की ही बाँह पकड़नी होगी।
उस्ताद अतामुहम्मद खाँ और वहीद खाँ की देखरेख में उनकी विविधत् संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई। केवल तेरह वर्ष की आयु में ही किशोर अख़्तरी ने कलकत्ते में पहली बार, ‘बिहार रिलीफ फंड’ के एक जलसे में भाग लेकर कलकत्ते के गुणी संगीत प्रेमियों को मुग्ध कर दिया। उस दिन दूर-दूर के संगीतज्ञ आमंत्रित थे, किन्तु सब जानते थे कि रिलीफ फंड के जलसे में पैसे नहीं मिलेगा। इसी से किसी को बुखार आ गया और किसी को हो गया उदर-विकार। फिर भी अनुष्ठान की आभा अख़्तरी ने एक क्षण के लिए भी म्लान नहीं होने दी। जिस सहज स्वाभिकता से उस बित्तेभर की लड़की ने दम तोड़ते जलसे को केवल अपने कंठ की जादुई फूंक से बचा लिया, उसे देखकर सब दंग रह गये।
कला-मर्मज्ञ कलकत्ता, किसी अनुभवी जौहरी की ही भाँति, कलाकार को पहचान, रत्न का उचित मूल आंकना भी जानता था। उन दिनों प्रसिद्ध पारसी नाटक कंपनियों में कैरैंथियन कम्पनी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय था। वही कम्पनी एक दिन अपना आकर्षण अनुबन्ध लेकर अख़्तरी के पास आई। उस समय के सबसे सम्पन्न ख्याति-सम्पन्न नाटककार थे – आगा हश्र कश्मीरी, जिन्हें ‘नाटकों का खुदा’ और ‘उर्दू का शेक्सपियर’ कहा जाता था। उनके प्रसिद्ध नाटकों में से ‘सैदे हवस’ ‘सफेद खून’ आदि बड़ी सफलता से खेले जा चुके थे।
अख़्तरी के लिए यह एक कठिन चुनैती थी। उधर उस्ताद कहते थे, ‘‘अख़्तरी सोच, अगर तुमने इस नाटक की दुनिया में कदम रखा तो फिर संगीत के दरवाजे हमेशा-हमेशा के लिए तुम्हारे लिए बंद हो जाएंगे। जिस कंठ के होनहार बिरवा के चिकने पातों को हमने अपनी तालीम से इतनी, मेहनत से सींचा है, व एक दिन सूखकर मुरझा जाएगा।’’ स्वयं अख़्तरी भी जानती थीं कि चटपटे गीत फड़कते संवाद और जगह-जगह पर शेर-दोहों की भीड़भाड़ में वह एक दिन खोकर रह जाएगी, किन्तु दूसरी ओर सहज में उपलब्ध एक ऐसी लोकप्रियता उसकी ओर मैत्री का हाथ बढ़ा रही थी, जिसका आकर्षण भी किसी अंश में, संगीत क्षेत्र की ख्याति से कम नहीं था। बड़े-बड़े शहरों और कस्बों में रंगीन इश्तहार-
‘शीरीं-फरयाद’, ‘मेनका अप्सरा’ जिसने मुनि विश्वामित्र की तपस्या भंग की, ‘‘लैला-मजनूं’ ‘श्रवण’ कुमार’, ‘मेनका’ ‘नूरेवतन’ हवा में में उड़ती परियाँ, पटाखा फटने पर उड़ता सिहांसन। इन चमत्कारिक दृश्यों का आकर्षण उन्नसवीं शताब्दी के लन्दन के ‘डूरी लेन’ की साज-सज्जा से कुछ कम नहीं होता था। प्रायः नाटक मंगलाचरण से आरम्भ होता। साक्षात् गन्धर्व कन्या-सी अख़्तरी के कंठ की मिठास, किसी भी पारसी नाटक कम्पनी के लिए, एक सुरक्षित बीमा बन सकती थी। इसी ने उन्हें एकदम सात सौ मासिक वेतन का अनुबन्ध दिया गया। तब सोना शायद रुपये तोला था, इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वह सौ तब किसी भी अंश में सात हजार से कम नहीं थे। अख़्तरी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अपने अभिनय-जीवन के पहले नाटक आगा मुंशित दिल लिखित ‘नई दुल्हन’ के पूर्वाभ्यास में जी जान से जुट गयी। छः महीने के कठिन परिश्रम के पश्चात एक दिन उन्होंने प्रसद्धि नाटक लेखन आगा महमूद को अपने ग्रैड रिहर्सल पर आमंत्रित कर, उसकी राय जाननी चाही। आगा महमूद के ‘बिल्व मंगल’ ने उन्हें उन दिनों ख्याति के सर्वोत्तम शिखर पर आसीन कर दिया था। उस समय की दो प्रसिद्ध रंगमंच अभिनेत्रियों—सरीफा और मिस गौहर-को आगा महमूद अपने नाटकों में तर्जनी के आदेश से निर्देशित कर चुके थे। उन्होंने रिहर्सल देखा। अख़्तरी बड़ी आशा और उमंग से उनके पास आई। उसे अपनी अभिनय-कला पर पूर्ण विश्वास था, किन्तु उसके पास छः महीने के कठोर परिश्रम और साधना के दर्पण को आगा ने देखते ही देखते जमीन पर पटककर चू-चूर कर दिया। ‘‘इस ड्रामें में जान नहीं है अख़्तरी, मुश्किल से आठ दिन चलेगा।
अख़्तरी का दिल डूब गया। जिस क्षेत्र में उसने अपने संगीत-गुर को अप्रसन्न करके ही चरण रखा था। वहाँ आकर भी क्या ऐसे मुँह की खानी होगी ? न जाने कितनी रातें वह रोती रही। कभी-कभी सोचती, आज तक जिस उदार नाटक कम्पनी ने, घर बैठे ही उसे ऊँचा वेतन दिया, वह ईमानदारी से लौटा दे, और फिर कभी इस ओर मुड़कर भी न देखे। किन्तु उसकी वालदा ने समझाया तुम कामयाब रहोगी,’’ और फिर वह रात, आज भी बेगम अख्तर को भुलाए नहीं भूलती। सुनाने लगती हैं, तो उस गरिमामय चेहरे से, विस्मृति का कुहरा सहसा छँट जाता है। दोनों आँखें नाक की लौंग के बड़े हीरे की कनी-सी ही दमकने लगती हैं।
करनानी उन दिनों कलकत्ते का मशहूर मारवाड़ी सेठ था, जिसकी मुट्ठी में शहर की बड़ी-बड़ी थियेट्रिकल कम्पनियाँ थीं, उस दिन मैं ‘नई दुल्हन’ के लिए तैयार हो रही थी, तो वह भागता आया, ‘अख़्तरी, हमारौ तो हौल छोटो पड़ गयो, आदमी पर आदमी मीनार बनावे है।’ अख़्तरी की दीवानी दर्शकों की वह भीड़, तब क्या जानती थी कि स्वयं उनकी हृदय-साम्राज्ञी का हृदय किसी नन्हीं चिरैया के दिल-सा ही धड़क रहा है ! क्या सफलता उसके चरण चूमेंगी या आगा महमूद की निर्मम भविष्वाणी, उसका उजला भविष्य धो-पोंछकर बहा देगी ? ‘‘मैं अगर यह जान जाती,’’ वे हसकर कहने लगीं, ‘‘कि आडिऐंस में आगा हश्र और महमूद भी बैठे हैं तो शायद बेहोश होकर गिर ही पड़ती।’’ पर सहसा एक सच्चे कलाकार के जन्मजात आत्मविश्वास ने अख़्तरी की झुकी गर्दन, सर्पगन्धा के फन-सी ही उठा दी। स्नेहशीला जननी का गम्भीर कंठस्वर, उसके कानो में गूँज उठा-‘‘इंशा अल्ला तुम कामयाब रहोगी बेटी !’’ पूरे हाल में बत्तियाँ बुझा दी गयीं, नेपथ्य से फेंकी जा रही तेज रोशनी का केन्द्रबिन्दु बनी थी किशोर अख़्तरी, अपूर्व रूपयौवन-मंडिता वह किन्नरी जैसे किसी शून्य अन्तरिक्ष से अवतरित हो रही थी। मंगलाचरण के गायकों के बीच, उस नवोदिता तारिक को स्वयं प्रथम चरणगाते-गाते प्रवेश करना था-‘जय-जय जगदीश्वर....।’
यह मेरा सौभाग्य है कि उस जादुई कंठ की स्वरलहरी ने मुझे तीस वर्ष पूर्व मन्त्रमुग्ध किया था, उस कंठ का आकर्षण आज भी मेरे लिए वैसा ही बना मेरी लेखनी को गतिशील बना रहा है। जहाँ तक गजल, ठुमरी एवं दादरा का प्रश्न है, स्वर-लय की ऐसी उत्कृष्ट, सम्पन्न गायकी का परिचय अन्य कोई भी गायिका शायद आज तक नहीं दे सकी है। ऐसी सहज स्वाभाविकता, स्वर-लय का ऐसा अपूर्व समन्वय सर्वोपरि उनके कंठ की एक सर्वथा निजी मौलिकता प्रस्तुतीकरण के बीच स्वयं ही आकर छिटक गया एक मीठी टहूक-सा स्वर-भंग जो शायद अन्य किसी भी गायक या गायिका के लिए उसकी गायिकी का दोष बन सकता था, उनकी गायकी का एक अनूठा नगीना बन गया है।
महाराष्ट्र के श्री वामनाराव देशपांडे भारत के प्रसिद्ध संगीतविद हैं। उन्होंने स्वयं विधिवत् ग्वालियर, किराना एवं जयपुर, तीनों घरानों की संगीत–शिक्षा प्राप्त की है। उनके मतानुसार पटियाला घराने का स्थान, जयपुर एवं किराना के मध्य स्थिति है। किराना की विशिष्टता है, सामान्य-सा नक्की स्वर, साथ ही आवाज में एक विचित्र–सी खराश, जिसका अपना एक निजी आकर्षण रहता है। स्वर की यह मिठास किसी रेशमी नाजुक तागे की भाँति खिंचती, और सुननेवालों को भी साथ-साथ खींचती चली जाती है- यह रेशमी डोर, जिस अनूठी कशीदाकारी का जाल बिखेरती चली जाती है, उससे बँधा श्रोता सबकुछ भूल-बिसकर रह जाता है। उधर जयपुर घराने की उन्होंने सर्वश्रेष्ठ माना है- किसी सुदक्ष भास्कर की गढ़ी मूर्ति-सा ही दोषरहित। स्वर-लय का सुठाम सामंजस्य, विकार की छंदमयी गति और मनोरंजकता इस गायकी की सुस्पष्ट छाप है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उनके गुरु थे पटियाला के प्रसिद्ध गायक मुहम्मद अता खाँ और वहीद खाँ।
बेगम अख़्तर का जन्म फैजाबाद में हुआ। उनके बैरिस्टर पति श्री इश्तियाक अहमद अब्बासी साहब के शब्दों में ‘‘इनकी ये खुशकिस्मती थी कि घर रखाइश और सहन-सहन पुराने जमाने की थी, इन्हें घर ही में तमीज़दारी और इखलाक की तामील मिली वालिद सैयद असगर हुसैन साहब एक अच्छे शायर थे, वालदा पढ़ी-लिखी तमीज़दार मिलनसार थीं सारा शहर जिनकी सखावत से फायदा उठाता था।’’
बालिका अख़्तरी को बचपन से ही संगीत से कुछ ऐसा लगाव था कि जहाँ गाना होता, छुप-छुपकर सुनती और नकल करती। घरवालों ने पहले तो उसे रोकना चाहा; पर समुद्र की उत्तुंग तरंगों को भला कौन रोक सकता था। यदि कोई चेष्ठा भी करता तो शायद लहरों का यह सशक्त ज्वारभाटा उसे भी ले डूबता। उधर फैजाबाद के हालात भी कुछ ऐसे ही हो गये थे कि उनकी वालदा उन्हें मजबूरन वहां से लेकर कलकत्ता और बिहार के बीच रहने लगीं। देवदत्त प्रतिभा-सम्पन्न किशोरी अख़्तरी ने फिर संगीत के जिस प्रथम सोपान पर पैर धरा, वहाँ से वह नीचे नहीं उतरी। स्वयं वाग्देवी ही प्रसन्न होकर, उस जिह्वा पर अपना चक्रआँक गयीं। अख़्तरी की रुचि का रुझान ठुमरी दादरा, गजल की ही ओर अधिक था; किन्तु वह जानती थी कि इसे कहने में सरल संगीत के पोहचें की पकड़ के लिए पहले उन्हें ख्याल गायकी की ही बाँह पकड़नी होगी।
उस्ताद अतामुहम्मद खाँ और वहीद खाँ की देखरेख में उनकी विविधत् संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई। केवल तेरह वर्ष की आयु में ही किशोर अख़्तरी ने कलकत्ते में पहली बार, ‘बिहार रिलीफ फंड’ के एक जलसे में भाग लेकर कलकत्ते के गुणी संगीत प्रेमियों को मुग्ध कर दिया। उस दिन दूर-दूर के संगीतज्ञ आमंत्रित थे, किन्तु सब जानते थे कि रिलीफ फंड के जलसे में पैसे नहीं मिलेगा। इसी से किसी को बुखार आ गया और किसी को हो गया उदर-विकार। फिर भी अनुष्ठान की आभा अख़्तरी ने एक क्षण के लिए भी म्लान नहीं होने दी। जिस सहज स्वाभिकता से उस बित्तेभर की लड़की ने दम तोड़ते जलसे को केवल अपने कंठ की जादुई फूंक से बचा लिया, उसे देखकर सब दंग रह गये।
कला-मर्मज्ञ कलकत्ता, किसी अनुभवी जौहरी की ही भाँति, कलाकार को पहचान, रत्न का उचित मूल आंकना भी जानता था। उन दिनों प्रसिद्ध पारसी नाटक कंपनियों में कैरैंथियन कम्पनी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय था। वही कम्पनी एक दिन अपना आकर्षण अनुबन्ध लेकर अख़्तरी के पास आई। उस समय के सबसे सम्पन्न ख्याति-सम्पन्न नाटककार थे – आगा हश्र कश्मीरी, जिन्हें ‘नाटकों का खुदा’ और ‘उर्दू का शेक्सपियर’ कहा जाता था। उनके प्रसिद्ध नाटकों में से ‘सैदे हवस’ ‘सफेद खून’ आदि बड़ी सफलता से खेले जा चुके थे।
अख़्तरी के लिए यह एक कठिन चुनैती थी। उधर उस्ताद कहते थे, ‘‘अख़्तरी सोच, अगर तुमने इस नाटक की दुनिया में कदम रखा तो फिर संगीत के दरवाजे हमेशा-हमेशा के लिए तुम्हारे लिए बंद हो जाएंगे। जिस कंठ के होनहार बिरवा के चिकने पातों को हमने अपनी तालीम से इतनी, मेहनत से सींचा है, व एक दिन सूखकर मुरझा जाएगा।’’ स्वयं अख़्तरी भी जानती थीं कि चटपटे गीत फड़कते संवाद और जगह-जगह पर शेर-दोहों की भीड़भाड़ में वह एक दिन खोकर रह जाएगी, किन्तु दूसरी ओर सहज में उपलब्ध एक ऐसी लोकप्रियता उसकी ओर मैत्री का हाथ बढ़ा रही थी, जिसका आकर्षण भी किसी अंश में, संगीत क्षेत्र की ख्याति से कम नहीं था। बड़े-बड़े शहरों और कस्बों में रंगीन इश्तहार-
‘शीरीं-फरयाद’, ‘मेनका अप्सरा’ जिसने मुनि विश्वामित्र की तपस्या भंग की, ‘‘लैला-मजनूं’ ‘श्रवण’ कुमार’, ‘मेनका’ ‘नूरेवतन’ हवा में में उड़ती परियाँ, पटाखा फटने पर उड़ता सिहांसन। इन चमत्कारिक दृश्यों का आकर्षण उन्नसवीं शताब्दी के लन्दन के ‘डूरी लेन’ की साज-सज्जा से कुछ कम नहीं होता था। प्रायः नाटक मंगलाचरण से आरम्भ होता। साक्षात् गन्धर्व कन्या-सी अख़्तरी के कंठ की मिठास, किसी भी पारसी नाटक कम्पनी के लिए, एक सुरक्षित बीमा बन सकती थी। इसी ने उन्हें एकदम सात सौ मासिक वेतन का अनुबन्ध दिया गया। तब सोना शायद रुपये तोला था, इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वह सौ तब किसी भी अंश में सात हजार से कम नहीं थे। अख़्तरी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अपने अभिनय-जीवन के पहले नाटक आगा मुंशित दिल लिखित ‘नई दुल्हन’ के पूर्वाभ्यास में जी जान से जुट गयी। छः महीने के कठिन परिश्रम के पश्चात एक दिन उन्होंने प्रसद्धि नाटक लेखन आगा महमूद को अपने ग्रैड रिहर्सल पर आमंत्रित कर, उसकी राय जाननी चाही। आगा महमूद के ‘बिल्व मंगल’ ने उन्हें उन दिनों ख्याति के सर्वोत्तम शिखर पर आसीन कर दिया था। उस समय की दो प्रसिद्ध रंगमंच अभिनेत्रियों—सरीफा और मिस गौहर-को आगा महमूद अपने नाटकों में तर्जनी के आदेश से निर्देशित कर चुके थे। उन्होंने रिहर्सल देखा। अख़्तरी बड़ी आशा और उमंग से उनके पास आई। उसे अपनी अभिनय-कला पर पूर्ण विश्वास था, किन्तु उसके पास छः महीने के कठोर परिश्रम और साधना के दर्पण को आगा ने देखते ही देखते जमीन पर पटककर चू-चूर कर दिया। ‘‘इस ड्रामें में जान नहीं है अख़्तरी, मुश्किल से आठ दिन चलेगा।
अख़्तरी का दिल डूब गया। जिस क्षेत्र में उसने अपने संगीत-गुर को अप्रसन्न करके ही चरण रखा था। वहाँ आकर भी क्या ऐसे मुँह की खानी होगी ? न जाने कितनी रातें वह रोती रही। कभी-कभी सोचती, आज तक जिस उदार नाटक कम्पनी ने, घर बैठे ही उसे ऊँचा वेतन दिया, वह ईमानदारी से लौटा दे, और फिर कभी इस ओर मुड़कर भी न देखे। किन्तु उसकी वालदा ने समझाया तुम कामयाब रहोगी,’’ और फिर वह रात, आज भी बेगम अख्तर को भुलाए नहीं भूलती। सुनाने लगती हैं, तो उस गरिमामय चेहरे से, विस्मृति का कुहरा सहसा छँट जाता है। दोनों आँखें नाक की लौंग के बड़े हीरे की कनी-सी ही दमकने लगती हैं।
करनानी उन दिनों कलकत्ते का मशहूर मारवाड़ी सेठ था, जिसकी मुट्ठी में शहर की बड़ी-बड़ी थियेट्रिकल कम्पनियाँ थीं, उस दिन मैं ‘नई दुल्हन’ के लिए तैयार हो रही थी, तो वह भागता आया, ‘अख़्तरी, हमारौ तो हौल छोटो पड़ गयो, आदमी पर आदमी मीनार बनावे है।’ अख़्तरी की दीवानी दर्शकों की वह भीड़, तब क्या जानती थी कि स्वयं उनकी हृदय-साम्राज्ञी का हृदय किसी नन्हीं चिरैया के दिल-सा ही धड़क रहा है ! क्या सफलता उसके चरण चूमेंगी या आगा महमूद की निर्मम भविष्वाणी, उसका उजला भविष्य धो-पोंछकर बहा देगी ? ‘‘मैं अगर यह जान जाती,’’ वे हसकर कहने लगीं, ‘‘कि आडिऐंस में आगा हश्र और महमूद भी बैठे हैं तो शायद बेहोश होकर गिर ही पड़ती।’’ पर सहसा एक सच्चे कलाकार के जन्मजात आत्मविश्वास ने अख़्तरी की झुकी गर्दन, सर्पगन्धा के फन-सी ही उठा दी। स्नेहशीला जननी का गम्भीर कंठस्वर, उसके कानो में गूँज उठा-‘‘इंशा अल्ला तुम कामयाब रहोगी बेटी !’’ पूरे हाल में बत्तियाँ बुझा दी गयीं, नेपथ्य से फेंकी जा रही तेज रोशनी का केन्द्रबिन्दु बनी थी किशोर अख़्तरी, अपूर्व रूपयौवन-मंडिता वह किन्नरी जैसे किसी शून्य अन्तरिक्ष से अवतरित हो रही थी। मंगलाचरण के गायकों के बीच, उस नवोदिता तारिक को स्वयं प्रथम चरणगाते-गाते प्रवेश करना था-‘जय-जय जगदीश्वर....।’
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